Friday, March 18, 2011

बेचैन बहारों में क्या-क्या है जान की ख़ुश्बू आती है

बेचैन बहारों में क्या-क्या है जान की ख़ुश्बू आती है
जो फूल महकता है उससे तूफ़ान की ख़ुश्बू आती है

कल रात दिखा के ख़्वाब-ए-तरब जो सेज को सूना छोड़ गया
हर सिलवट से फिर आज उसी मेहमान की ख़ुश्बू आती है

तल्कीन-ए-इबादत की है मुझे यूँ तेरी मुक़द्दस आँखों ने
मंदिर के दरीचों से जैसे लोबान की ख़ुश्बू आती है

कुछ और भी साँसें लेने पर मजबूर-सा मैं हो जाता हूँ
जब इतने बड़े जंगल में किसी इंसान की ख़ुश्बू आती है

कुछ तू ही मुझे अब समझा दे ऐ कुफ़्र दुहाई है तेरी
क्यूँ शेख़ के दामन से मुझको इमान की ख़ुश्बू आती है

डरता हूँ कहीं इस आलम में जीने से न मुनकिर हो जाऊँ
अहबाब की बातों से मुझको एहसान की ख़ुश्बू आती है

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